कांग्रेसी सरकारें हमेशा मेहरबान रही हैं नेशनल हेराल्ड पर

नरेन्द्र कुमार सिंह

कांग्रेस के राज में नेशनल हेराल्ड और उसे प्रकाशित करने वाली कंपनी एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड को हमेशा सरकारी दामाद का दर्जा हासिल रहा है. मध्य प्रदेश में तो प्रेस काम्प्लेक्स की स्थापना ही इसलिए हुई कि 1981 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार नेशनल हेराल्ड को कौड़ियों के भाव जमीन देना चाहती थी. इस मायने में सारे अख़बार मालिकों को एसोसिएटेड जर्नल्स का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसे उपकृत करने की खातिर सरकार ने दूसरे अख़बारों को भी फायदा पहुँचाया.

नेशनल हेराल्ड को भोपाल में 1981 में जिस नाटकीय ढंग से रातों-रात सरकारी जमीन दी गई थी, वह अपने आप में एक दिलचस्प किस्सा है. अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री बने कुछ महीने ही हुए थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी 20 जुलाई 1981 को भोपाल आ रहीं थीं. अवसर था एसोसिएटेड जर्नल्स के भोपाल प्रोजेक्ट के शिलान्यास का. नेशनल हेराल्ड की स्थापना जवाहरलाल नेहरु ने की थी और उसे चलाने वाले एसोसिएटेड जर्नल्स की पहचान गाँधी-नेहरु खानदान की पारिवारिक कंपनी के रूप में थी. अर्जुन सिंह तब राजनीतिक रूप से काफी कमज़ोर थे. वैसे भी कांग्रेस का कोई भी मुख्यमंत्री इंदिराजी को खुश करने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दे सकता था.

एसोसिएटेड जर्नल्स के कर्ता-धर्ता और इंदिरा गाँधी के विश्वासपात्र कांग्रेसी नेता यशपाल कपूर ने भोपाल में सरकारी जमीन के अलाटमेंट की बात तो काफी पहले कर ली थी और उसके लिए महाराणा प्रताप नगर के व्यावसायिक क्षेत्र में दो एकड़ का एक प्लाट चिन्हित भी कर लिया गया था. पर जुलाई में जब प्लाट अलाटमेंट होने लगा तो भोपाल डेवलपमेंट अथॉरिटी ने उसके लिए 40 रूपये वर्गफीट की दर से 40 लाख रूपये जमा कराने कहा. मास्टर प्लान के तहत वह इलाका व्यावसायिक क्षेत्र में आता था. बीडीए उन दिनों उस इलाके में बगल के व्यावसायिक प्लाट 40 रूपये वर्गफीट के हिसाब से बेच रहा था.

शिलान्यास के एक सप्ताह पहले हुए इस घटनाक्रम से सकते में आये एसोसिएटेड जर्नल्स के प्रबंधन ने दिल्ली संपर्क किया और 17 जुलाई को यशपाल कपूर भोपाल आये. हवाई अड्डे से वे सीधे मंत्रालय बल्लभ भवन में अर्जुन सिंह के चैम्बर में पहुंचे, जहाँ सारे सम्बंधित विभागों के अफसरों को आनन-फानन में तलब किया गया और उस जमीन को नाम मात्र के मूल्य में देने का तरीका ढूँढने कहा गया. सरकार ने उसी दिन एक एकड़ का प्लाट एसोसिएटेड जर्नल्स को ट्रान्सफर करके उसका कब्ज़ा दे दिया. दो दिन बाद 19 जुलाई को अर्जुन सिंह ने राज्य कैबिनेट की बैठक बुलाई जिसमें प्रस्ताव पारित किया कि एसोसिएटेड जर्नल्स को एक लाख रूपये एकड़ की दर से जमीन दी जाये.

मैं तब इंडियन एक्सप्रेस का मध्य प्रदेश संवाददाता हुआ करता था. कोई भी मंत्री या अफसर इस घटना के बारे में बात नहीं करना चाहता था. पर फिर भी 18 जुलाई को इंडियन एक्सप्रेस के सारे संस्करणों में जब पहले पेज पर यह खबर छपी तो काफी हंगामा हुआ. उसकी एक वजह शायद यह थी कि कुछ महीनों पहले ही टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने जमीन के लिए आवेदन किया था और उनकी दरखास्त ठंडे बस्ते में डाल दी गयी थी. प्रधानमंत्री के दौरे के महज दो दिन पहले इस तरह का विवाद सरकार के गले की घंटी बन गया.

बहरहाल ख्जबर छपने और विवाद खड़ा होने के बाद अर्जुन सिंह इस बारे में बात करने तैयार हुए. जब मैं उनसे मिलने मंत्रालय पहुंचा तो उन्होंने मुझसे कहा कि एसोसिएटेड जर्नल्स को किफायती रेट पर सरकारी जमीन देने का उनका निर्णय सही था क्योंकि अख़बार जनसेवा के काम में लगे रहते हैं.
मैंने पूछा, “और किस अख़बार को आपने जमीन दी है?”

बहुत नपा-तुला बोलने के लिए विख्यात अर्जुन सिंह चुप रहे.

फिर मैंने दूसरा सवाल उछाला, “क्या आप दूसरे अख़बारों को भी इसी तरह किफायती रेट पर जमीन देंगे?”

मोटे फ्रेम वाले चश्मे के पीछे से झांकती अर्जुन सिंह की आँखों में एकाएक एक चमक दिखी. उन्होंने अपना चश्मा उतरा, थोड़ी देर पोंछते रहे और फिर कहा, “सरकार इस बात पर विचार कर रही है कि भोपाल के एमपी नगर में कुछ कमर्शियल प्लाट किफायती रेट पर अख़बारों को दिया जाये और उस इलाके में एक प्रेस काम्प्लेक्स विकसित किया जाये.

बाद में उन्होंने कहा, “हम दूसरे अख़बार वालों को भी जमीन देंगे.”

मैं सीएम चैम्बर से निकला तो एक वरिष्ठ पत्रकार बाहर बैठे थे. मैंने उन्हें जानकारी दी तो उन्होंने कहा मैं भी अभी ही दरखास्त देता हूँ. उन्होंने आवेदन किया भी और बाद में उन्हें आधा एकड़ जमीन मिली भी. उस समय की सरकारी फाइलें खंगाली जाएँ तो पता चलेगा 18 जुलाई तक प्रेस काम्प्लेक्स का कोई विचार उन फाइलों में नहीं था.

अर्जुन सिंह के बाद जब मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री बन कर आये तब तक एसोसिएटेड जर्नल्स का प्रेस लग चुका था और ग्रुप का हिंदी अख़बार नवजीवन वहां छप रहा था. उन दिनों यहाँ नेशनल हेराल्ड के कर्ता-धर्ता रमेश चन्द्र चौबे होते थे. उन्हें इस बात पर गर्व था कि उनकी शिक्षा मिडिल स्कूल तक नहीं पहुँच पाई पर वे नवजीवन के संपादक, प्रबंध संपादक और प्रकाशक जैसे बड़े पदों को सुशोभित कर चुके थे. खादी का धोती-कुरता पहनने वाले गोल-मटोल चौबे जी का आकर छोटा था, वे पांच फीट से थोडा ही लम्बे होंगे, पर उनका जलवा यह था कि बड़े से बड़े मंत्रियों की उनको देखकर फूँक सरक जाती थी. चोबे जी फ़ोन लगा कर सीधे यशपाल कपूर से बात कर लेते थे और इंदिरा जी और बाद में राजीव जी तक उनकी पहुँच थी. चौबे जी का जलवा नेशनल हेराल्ड का जलवा था और नेशनल हेराल्ड के जलवा वास्तव में गाँधी-नेहरु परिवार का जलवा था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंडियन एक्सप्रेस के स्थानीय संपादक रह चुके हैं.)


समाप्त


Comments


  1. 'so work'very good information frinds ,apki post bhahut achhi lagi thanku frind'Hindi softwer jankari'

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