BANDIT MALKHAN SINGH'S LAST NIGHT IN CHAMBAL RAVINES

चम्बल की बीहड़ों में एक रात

नरेन्द्र कुमार सिंह

भिंड जिले की बीहड़ों के बीच बसा मदनपुरा गाँव. १९८२ के गर्मियों की एक रात. अँधेरा इतना था कि हाथ को हाथ न सूझे. सामने पहाड़ जैसे ऊँचे बीहड़, उनके बीच ऊबड़-खाबड़, घुमावदार पगडंडियों का जाल. अगला कदम कहाँ ले जायेगा, इसका कोई अंदाज़ नहीं. टार्च की धुंधली रोशनी के सहारे हम एक-एक कदम फूँक-फूंककर बढ़ा रहे थे. तभी एक मोड़ पर कई बड़े टार्चों की तेज रोशनी से हमारी आँखे चौंधिया गयी. एकाएक हमें चारों तरफ से हथियारबंद लोगों ने घेर लिया और बंदूकें तन गयी. कुछ समय के लिए साँस टंगी की टंगी रह गयी. फिर किसी ने रमाशंकर सिंह को पहचाना, जो उन दिनों भिंड जिले से ही लोक दल के जुझारू विधायक हुआ करते थे और अब ग्वालियर में एक बहुत ही सफल प्राइवेट यूनिवर्सिटी चलाते हैं.

अब हम गैंग के मेहमान थे.

मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के लगभग २०,००० किलोमीटर में भूल-भुल्लैया की तरह फैले चम्बल के बीहड़ों की खासियत यह है कि पांच-दस फीट आगे का आदमी भी आँखों से ओझल हो सकता है. डकैतों की बड़ी से बड़ी गैंग आराम से हफ़्तों किसी खो में छिपी रह सकती है और घाटी के दूसरी तरफ मार्च कर रही पलटन को उसकी भनक भी नहीं लगती है.

मुश्किल से पांच मिनट चलने के बाद ही हम एक विशाल समतल टीले पर लगे दरबार में हाज़िर थे. एक-दो कोनों में पेट्रोमेक्स फीकी रोशनी बिखेर रहे थे. दूसरी तरफ से पकते हुए खाने की खुशबु आ रही थी. यह दरबार था “दस्यु सम्राट” मलखान सिंह का. उनके छपे हुए लेटरहेड के मुताबिक मलखान का राज मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, यूपी, दिल्ली और मद्रास (तब चेन्नई मद्रास कहलाता था) तक फैला था. वह चम्बल के डकैतों की सबसे बड़ी गैंग का नेता था. एक समय उसके पास ११० बागी थे, कई लाइट मशीनगनें थी, स्टेनगन थे, आटोमेटिक रायफलें थी, सर पर ७०,००० रूपये का इनाम था और तीन राज्यों की थानों में ६० हत्याएं, अनगिनत डकैतियां, लूट और अपहरण के मुक़दमे दर्ज थे.

१७ जून १९८२  की वह रात मलखान और उसके खूंखार गैंग के आज़ादी की आखिरी रात थी. अगले दिन गैंग सरेंडर करने वाला था. दरबार में भिंड के एसपी राजेंद्र चतुर्वेदी भी मौजूद थे. उनसे तथा रमाशंकर से मित्रता की वज़ह से ही मलखान सिंह की गैंग के साथ बीहड़ों में आखिरी रात गुजारने वाला में अकेला पत्रकार था. तीन और पत्रकार भी थे ---- कल्याण मुख़र्जी, ब्रिजराज सिंह तथा प्रशांत पन्जिआर, पर उनकी भूमिका पत्रकार की नहीं सरेंडर वालों की थी. मेरा परिचय मलखान से कराया गया. उसने गर्मजोशी से हाथ मिलाया. उसके बाद गैंग के बाकी मेम्बर बारी-बारी से हमारे पांव छूने आ गए.

मलखान से लम्बी बातचीत के बाद रात दो बजे खाना परोसा गया ---- घी में छनी गर्मागर्म पूड़ियाँ और मटन. जमीन पर बिछी दरी पर जब लेटने गए तो गैंग के एक मेम्बर मेरे सिराहने के लिए अपना झोला दे गया. टटोला तो उसमें कारतूस भरे हुए थे!

बंदूकों से फायरिंग करते डकैतों के साथ जीपों के काफिले में सुबह मैं भिंड की उस सभा में पहुंचा जहाँ उनका सरेंडर होना था. उस ऐतिहासिक घटना की कवरेज के लिए देश-विदेश के पत्रकार पहुंचे हुए थे. उसदिन शाम वे रूटीन स्टोरी लिख रहे थे और मैं अपने अख़बार इंडियन एक्सप्रेस के लिए अपना स्कूप लिख रहा था ---- मलखान के साथ बीहड़ों में आखिरी रात.


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