मीडिया मैनेजमेंट के ताजा नुस्खे
नरेंद्र कुमार सिंह
पिछले सप्ताह मीडिया की आजादी पर एक और हमला हुआ। दिल्ली में गृह
मंत्रालय ने पत्रकारों से बात करने पर अपने आला अफसरों पर पाबंदी लगा दी। गृह मंत्रालय ने एक
आदेश में कहा है कि अतिरिक्त महानिदेशक (मीडिया) के अलावा कोई भी
अफसर पत्रकारों से बात नहीं करेगा। पत्रकारों से भी कहा गया है कि वे नॉर्थ ब्लॉक
के कमरा नंबर नौ के अलावा कहीं भी अफसरों से मुलाक़ात नहीं कर सकेंगे। यहाँ तक कि होम सेक्रेटरी भी
सीधे पत्रकारों से बात नहीं करेंगे।
कुल मिलाकर शाम को अनौपचारिक बैठकों में गर्म चाय के प्याले (और कभी-कभार भजिए) के साथ मसालेदार खबरें परोसने के पहले
अफसरों को अपनी नौकरी, कंडक्ट रुल्स और ओफिसियल सीक्रेट एक्ट याद करना होगा।
वॉटरगेट से सरकारों ने सबक नहीं लिया
ऐसा नहीं कि सरकारी दफ्तरों में पत्रकारों के घुसने पर पाबंदी लगाने के बाद मीडिया में सरकार
के खिलाफ निगेटिव खबरें आनी बंद हो जाएंगी। कोई भी सरकार ऐसा नहीं कर सकती है।
प्रजातन्त्र की यही खूबी है। याद रखें कि दुनिया की सबसे शक्तिशाली सरकार की भरपूर कोशिशों
और धमकियों के बावजूद वॉशिंग्टन पोस्ट ने वॉटरगेट कांड का भंडफोड किया था। प्रेस से भी ज्यादा
महत्वपूर्ण भूमिका उसमें निक्सन प्रशासन के कुछ अफसरों की थी, जो सरकार को आईना
दिखाने वाली जानकारी लगातार लीक करते रहे। उसकी वजह से अमरीका में बाद में व्हिसलब्लोवर प्रोटेक्शन एक्ट में काफी सुधार भी किए गए ताकि सरकार के गलत कामों का
भंडाफोड़ करने वालों को कानूनी संरक्षण मिल सके।
दाग दिखने पर आईने को तोड़ने की कोशिश
व्यापम स्केण्डल और ललित मोदी कांड से घिरी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को
लगता है कि मीडिया का एक तबका वैचारिक कारणों से उसकी छवि धूमिल करने में लगा है। पत्रकारों
के प्रवेश पर पाबंदी लगाने वाले गृह मंत्रालय के आदेश के एक दिन
पहले ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि सरकार को बदनाम
करने के लिए “हताश विपक्ष तथा मीडिया का एक वर्ग” तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने में लगा हुआ है।
अपनी पूर्ववर्ति यूपीए सरकार की तरह ही एनडीए हुकूमत को भी बुरी खबरें लाने वाले हरकारे पसंद नहीं। यह
पहली दफा नहीं है कि एनडीए सरकार मीडिया पर मेहरबान हुई है। पिछले साल सत्ता
में आने के थोड़े समय बाद ही केंद्र सरकार ने अपने दफ्तरों में पत्रकारों के प्रवेश को
लेकर बने नियमों को सख्ती से लागू करने के निर्देश दिये थे। राष्ट्रीय सुरक्षा
सलाहकार और प्रधानमंत्री के खास सिपहसालार अजित डोभाल को शक था कि पत्रकारों की खुलेआम आवाजही की वजह से दफ्तरों से ऐसी खबरें लीक हो रही हैं, जिनका छपना सरकार के हित में नहीं है।
सरकारों को नहीं भाती विकिलिक्स की
पत्रकारिता
अजित डोभाल को स्पाईमास्टर कहा जाता है। उनकी पहल पर सरकारी दफ्तरों से संवेदनशील तथा
गोपनीय दस्तावेज़ लीक करने के आरोप में इस साल की शुरुआत में कुछ गिरफ्तारियाँ भी
हुई। पर उनमें कोई पत्रकार नहीं था। जाहिर है, गोपनीय दस्तावेज़
लीक होना चिंता की बात है। पर लगता है किसी भी सरकार के लिए उससे भी ज्यादा चिंता की बात
है अप्रिय खबरों का लीक होना।
एक उदाहरण अमरीका का है। अपने नागरिकों को सूचना का अधिकार देने में उस देश
ने पहल की है। सत्ता का दुरुपयोग करने वाले राजनेताओं का भंडाफोड़ करने वालों को वहाँ कानूनी संरक्षण
है। सरकारी गवाहों को सुरक्षा देने पर उस मुल्क में हर साल 27 करोड़ डॉलर खर्च होते हैं। पर जब विकिलिक्स ने अमरीकी
सरकार के गैर-कानूनी कामों का भंडाफोड़ किया, तो वही अमरीका उसके संस्थापक जूलियन असांगे को जेल में
ठूँसने के लिए हर जतन कोशिश कर रहा है। असांगे पिछले तीन सालों से एक्वाडोर के लंदन
स्थित दूतावास में एक भगोड़े की ज़िंदगी जीने पर विवश हैं।
पत्रकारों की शिकायत है खबरों का टोटा
अगर सरकार पत्रकारों से परेशान है तो पत्रकार भी सरकार से
कोई कम परेशान नहीं। दिल्ली के प्रशासनिक गलियारों में खबर सूंघने वाले पत्रकारों की शिकायत है कि नरेंद्र मोदी के
सत्ता में आने के बाद उनकी खबरों के श्रोत तेजी से सूख रहे हैं। अफसरों के मुंह
सिल गए हैं। प्रधानमंत्री निवास और पीएमओ तक उन्ही गिने-चुने पत्रकारों की पहुँच है जो वैचारिक तथा व्यक्तिगत
रूप से मोदी के करीब हों। प्रधानमंत्री भले हर महीने विदेश जाते हों, पर कवरेज के लिए उनके
साथ पत्रकारों की फौज ले जाने की प्रथा बंद हो गयी है।
जहां तक मीडिया का सवाल है, मोदी मनमोहन से भी ज्यादा मौन रहते हैं। पत्रकारों के जरिये
जनता से संवाद करने की बजाय वे सीधे अपनी मन की बात कहते हैं। सोशल मीडिया के वे
एक्सपर्ट हैं। इंटरनेट को वे अधिकारपूर्वक इस्तेमाल करना जानते हैं। जहां
तक जनता से सीधे संवाद करने का सवाल है, जवाहलाल नेहरू के बाद मोदी से बड़ा कम्यूनिकेटर प्रधानमंती की
कुर्सी पर नही आया है।
मीडिया से दूरी बनाने की मोदी की यह शैली नई नही है। गुजरात में अपने
दस सालों के कार्यकाल में वे इस शैली में भली-भांति निपुण हो गए थे। वे उन्ही पत्रकारों
से बात करते थे, जिनसे करना चाहते थे। बाकी तो उनकी परछांही के पास भी फटक नही पाते थे।
क्या सत्ता मीडिया विरोधी होती है?
मीडिया का मूल स्वभाव सत्ता विरोधी होता
है। उसी तरह से क्या सत्ता का मूल स्वभाव भी मीडिया विरोधी होता है? अरविंद केजरीवाल
की आम आदमी पार्टी को ही लें। दिल्ली में आप की सरकार बनने के बाद पहले दिन ही उसने
सेक्रेटरियट में पत्रकारों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। फिर उसने मुख्यमंत्री तथा
सरकार के अन्य कर्ता धर्ताओं के खिलाफ लिखने पर मानहानि का मुकदमा करने का आदेश
जारी कर दिया। बाद में इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी। पर अपने खड़े किए
संकटों के लिए उसने मीडिया को कोसना जारी रखा है। भाजपा, काँग्रेस और आप
भले एक दूसरे से अलग होने का दावा करते रहें, पर अपनी समस्याओं के लिए मीडिया को दोषी टहराने के मामले में
तीनों एक हैं।
पुछल्ला
दैनिक भास्कर ग्रुप अँग्रेजी का नया अखबार
निकालने की तैयारी में पूरे जोश खरोश से लगा है। लगता है कि दस साल पहले ज़ी
ग्रुप के साथ मिलकर चालू किए डीएनए से उसका पूरी तरह मोह भंग हो गया है। डीएनए
का इंदौर और जयपुर एडिशन मैनेजमेंट पहले ही बंद कर चुका है। भास्कर ग्रुप द्वारा
चलाये जाने वाले अहमदाबाद एडिशन का स्वरूप मुंबई से निकलने वाले डीएनए के मूल एडिशन से एकदम अलग
है।अँग्रेजी पत्रकारिता की दुनिया में ग्रुप का यह पांचवा कदम होगा। इसके पहले उसने हितवाद चलाया था। फिर अँग्रेजी में भास्कर निकाला था। बाद में नेशनल मेल निकाला। फिर डीएनए आया
जिसको मुंबई के अँग्रेजी पत्रकार इसलिए याद करते हैं क्योंकि उसकी वजह से सबकी सैलरी रातों-रात दोगुनी हो गयी थी।
डीएनए की चुनौती का मुकाबला करने के लिए परंपरागत प्रतिद्वंधी टाइम्स ऑफ इंडिया
तथा हिंदुस्तान टाइम्स को हाथ मिलाना पड़ा था।
(इस स्तंभ में व्यक्त विचार नितांत व्यक्तिगत हैं।)
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