तो माट साब जेल में चक्की पीस रहे होते
नरेन्द्र कुमार सिंह गंगौर गांव के प्राइमरी स्कूल की छत उन दिनों खपरैल की हुआ करती थी. पर फर्श कच्ची थी. प्रार्थना के बाद हमारा पहला काम होता था दोनों कमरों को बुहारना. हफ्ते में एक दिन, हर शनिवार को, बच्चे आस-पास से गोबर इकठ्ठा करते थे और फर्श को लीपते थे. काम बढ़ जाता था, इसलिए वह दिन खास होता था. हम घर से भिंगोये हुए चावल लाते थे और साथ में एक पैसा भी. माट साब वे पैसे जमा कर गुड़ मंगवाते थे और हमें मिड डे मील खिलाते थे. भिंगोये हुए कच्चे चावल के साथ गुड़ की मिठास अभी भी जबान पर है. नौगछिया हाई स्कूल पहुंचे तो बागवानी का कंपल्सरी पीरियड हो गया. हम फूटबाल के विशाल मैदान में बढ़ गयी घास उखाड़ते थे और कूड़ा-कर्कट इकठ्ठा कर कंपाउंड को चकाचक कर देते थे. मेरे पिता खादी कार्यकर्ता थे. नासिक के जिस गाँधीवादी आश्रम में हम रहते थे वहां के सामूहिक रसोड़े में खाना खाने के बाद सबको अपनी थाली खुद धोनी पड़ती थी. बच्चों को भी. पिता रोज सुबह उठकर अन्य शिक्षकों के साथ मिलकर सार्वजनिक शौचालयों को साफ़ करने जाते थे. ऐसा केवल गाँधी के चेले ही नहीं करते थे. आरएसएस में भी वही परंपरा है. मेरे पत्रकार मित्र ...