क्यों नहीं चलते हैं अंग्रेजी के अख़बार

नरेंद्र कुमार सिंह


भोपाल से महज 160 किलोमीटर दूर हरदा में चार अगस्त की रात को एक भीषण रेल हादसा हुआ. जैसा कि स्वाभाभिक है, अगली सुबह भोपाल के ज्यादातर बड़े अख़बारों में यह खबर पहले पन्ने पर थी. सीमित साधनों वाले कुछ छोटे अख़बार, खासकर वे अख़बार जिनके पास अपना छापाखाना नहीं है, जरूर इस महत्वपूर्ण खबर को नहीं छाप पाए. खबर न छापने वालों में यह दैनिक भी शामिल है. (वैसे सुबह-सवेरे अपने आप को “दैनिक समाचार पत्रिका” कहता है.)

भोपाल के जिन दो बड़े समाचार पत्रों में हरदा हादसे की खबर उस दिन नहीं छपी, वे हैं ---- हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ़ इंडिया. यह दोनों कोई छोटे-मोटे सीमित साधनों वाले अख़बार नहीं है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया देश के सबसे बड़े मीडिया घराने का अख़बार है. इसे निकालने वाली कंपनी का सालाना टर्नओवर लगभग 9 अरब रूपये है. यह हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली मीडिया कंपनी है. एक अंदाज के मुताबिक पिछले साल इसका मुनाफा लगभग एक हज़ार करोड़ रूपये था. 1,555 करोड़ रूपये के टर्नओवर पर 155 करोड़ मुनाफा कमाने वाला बिरला घराने का हिंदुस्तान टाइम्स भी देश के बड़े मीडिया घरानों में से एक है.

अख़बार भोपाल में, संपादन दिल्ली में

भोपाल के इन दो बड़े अख़बारों में उस दिन की सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण खबर इस लिए नहीं छपी क्योंकि उनके पास अपना छापाखाना नहीं है. लागत कम रखने के लिए इन अख़बारों ने अपना प्रेस नहीं लगाया है. अख़बार की प्रिंटिंग के लिए वे दूसरे छापेखानों पर आश्रित हैं. इन छापेखानों में दूसरे अख़बार भी छपते हैं. एक प्रेस तो रोज आठ दैनिक अख़बार छापता है. जाहिर है ये अख़बार एक साथ नहीं छापे जा सकते. कोई अख़बार 9 बजे शाम को ही छप जाता है तो कोई रात को १२ बजे प्रेस से बाहर आ जाता है.

टाइम्स ऑफ़ इंडिया के रिपोर्टर रात दस बजे के बाद कोई खबर नहीं दे सकते. हिंदुस्तान टाइम्स की हालत तो और भी बुरी है. अख़बार छपता तो भोपाल से है, पर इसके संपादक कलकत्ता में बैठते हैं. खर्च कम करने के लिए अख़बार का सम्पादकीय डेस्क दिल्ली शिफ्ट कर दिया गया है. पेज वहां बनते हैं. उनको भोपाल छोड़ें, मध्य प्रदेश की ही इतिहास-भूगोल का पता नहीं. दिल्ली में बैठी सब-एडिटर के लिए उस शाम की सबसे बड़ी समस्या शायद यह हो कि 6 घंटो से मयूर विहार में बिजली गुल थी. पर उसे तय करना है कि 800 किलोमीटर दूर भोपाल के एक चौराहे पर स्कूल बस एक्सीडेंट में घायल 5 बच्चों की खबर पहली लीड बनेगी या नेहरु नगर नामक किसी इलाके में रात को डकैती की खबर ज्यादा महत्वपूर्ण है.

भोपाल से निकलते हैं अंग्रेजी के सात अख़बार

टाइम्स ऑफ़ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स का तो मैंने नाम लिया, क्योंकि ये बड़े अख़बारों की श्रेणी में शुमार होते हैं. पर हमारे कई पाठकों के लिए भी यह एक चौंकाने वाली सूचना हो सकती है कि हिंदी के हार्ट लैंड भोपाल से अंग्रेजी के सात अख़बार निकलते हैं. भोपाल से दस गुना ज्यादा बड़े शहर मुंबई से अंग्रेजी में निकलने वाले अख़बारों की तादाद (फाइनेंसियल अख़बारों को छोड़कर) लगभग इतनी ही है! अंग्रेजी अख़बारों के मामले में अपना शहर इतना समृध्ध कभी नहीं रहा. यहाँ से निकलने वाले अंग्रेजी दैनिकों के नाम हैं:
  • टाइम्स ऑफ़ इंडिया
  • हिंदुस्तान टाइम्स
  • पायनियर
  • हितवाद
  • सेंट्रल क्रॉनिकल
  • फ्री प्रेस
  • इकनोमिक टाइम्स  

शायद कहने की जरूरत नहीं कि इनमें से किसी भी अख़बार ने 5 अगस्त के अंक में हरदा हादसे की खबर नहीं छापी. पर हम बात कर रहे हैं अंग्रेजी के दो बड़े अख़बारों की. न तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया में और न ही हिंदुस्तान टाइम्स में शाम 8-9 बजे के बाद की कवरेज की कूवत है और न ही इक्षा शक्ति. जाहिर है उनका मैनेजमेंट मान कर बैठा है कि उसके पाठक ख़बरें या तो टीवी में देखेंगे या इन्टरनेट पर, या फिर किसी स्थानीय हिंदी अख़बार में. अर्थात वे अख़बारों की दूसरी कतार में खड़े होने की लिए ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हैं. इस तरह का दोयम दर्जे का अख़बार परोसने का मतलब है कि वे अपने पाठकों को पहले दर्जे का मूर्ख समझते हैं. उन्हें लगता है कि अख़बार वे कितना भी ख़राब निकालें, पाठक उसे पढने के लिए लालायित रहेगा क्योंकि उसे एक बड़ा ब्रांड चाहिए.

क्यों बेहतर हो रहे हैं भाषाई और क्षेत्रीय अख़बार

अख़बार की क्वालिटी गिरने पर उसका सर्कुलेशन घटने लगता है. तब ब्रांड मैनेजरों को अपनी इस धारणा पर पुख्ता यकीन हो जाता है कि हिंदी इलाकों में अंग्रेजी के अख़बार नहीं चल सकते हैं. फिर वे फतवे देने लगते हैं कि प्रिंट मीडिया में अंग्रेजी के दैनिक चंद दिनों के मेहमान हैं तथा वे ज्यादा से ज्यादा 5-10 साल और चल पाएंगे. आगे यह थीसिस आती है कि अब तो लैंग्वेज जर्नलिज्म का जमाना आ गया है. वे इस बात को नज़रअंदाज कर जाते हैं कि छोटे शहरों में अंग्रेजी के पाठकों को बेवकूफ मान जूठन और बासी ख़बरें परोसी जा रही हैं. दूसरी तरफ उन्ही शहरों में हिंदी के अख़बारों ने अपनी गुणवत्ता में सौ गुणा सुधार किया है.

हिंदी (और दुसरे भाषाई) के कुछ प्रतिष्ठित क्षेत्रीय अख़बार पाठकों की जरूरतें पूरी करने के लिए जी-जान से कोशिश करते हैं. इसकी एक बानगी पिछले सप्ताह देखने मिली. याकूब मेमन को फांसी दी जाये या नहीं इसके लिए दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट तड़के तीन बजे खुला और पांच बजे सुबह उसने फैसला सुनाया. भोपाल से निकलने वाले दैनिक भास्कर में, इंदौर से निकलने वाले नई दुनिया में, जयपुर से निकलने वाले पत्रिका में इसकी पूरी कवरेज थी. पर दिल्ली से ही निकलने वाले अंग्रेजी के दिग्गज राष्ट्रिय अख़बारों ने टीवी पर बढ़त हासिल करने का यह मौका हाथ से गँवा दिया.

  


 
पुछल्ला  

कास्ट-कटिंग की वजह से दिल्ली में बैठा हिंदुस्तान टाइम्स भोपाल का एडिशन निकालता है तो इंडियन एक्सप्रेस अहमदाबाद का. फलस्वरूप एक ऐसी पत्रकारिता का जन्म हुआ है जिसमें पाठक गौण हो गए है और कंप्यूटर हावी. मशीनी पत्रकारिता या असेंबली-लाइन पत्रकारिता की इजाद करने वाले ये पहले अख़बार नहीं हैं. सन्डे टाइम्स के अविस्मर्णीय संपादक हेरोल्ड इवांस की जीवनी गुड टाइम्स बैड टाइम्स को छपे तीन दशक हो गए. (इस पुस्तक को पत्रकारिता के हर विद्यार्थी के लिए पढना अनिवार्य कर देना चाहिए.) खर्चे घटाने की होड़ में पत्रकारिता को कंप्यूटर के हवाले कर किस तरह हम गुणवत्ता घटा रहे हैं, इस पर उन्होंने तभी चेतावनी दी थी.

अभी ताज़ा मामला तो स्कॉटलैंड से आया है. स्कॉटिश प्रोविंशियल प्रेस कंपनी 15 अख़बार निकालती है. वह अब अपने अख़बारों की पेज-मेकिंग भारत में करने जा रही है. आगे चलकर संपादन भी. यहाँ कंपनी को जो डिजाईन आर्टिस्ट पंद्रह हज़ार में मिल जाते हैं, ब्रिटेन में उनको इसी काम के लिए डेढ़ लाख रूपये खर्च करने पड़ते हैं. हल्ला हो रहा है. पर जमाना बदल रहा है.
   
(लेखक हिंदुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, दैनिक भास्कर तथा नयी दुनिया से जुड़े रहे हैं. पर इस स्तंभ में व्यक्त विचार नितांत व्यक्तिगत हैं।)


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